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हिंदी एक्सप्रेस: हिंदी के महामानवों संग संवाद

  • Jaiveer Singh
  • Sep 13
  • 7 min read

हिंदी दिवस के अवसर पर, हमारे संपादक जयवीर सिंह ने 'हिंदी एक्सप्रेस' शीर्षक से एक नाटक लिखा है। यह नाटक हमें हिंदी साहित्य के महान लेखकों के विचारों की एक जादुई यात्रा पर ले जाता है। जब आप इसे पढ़ेगे, तो आप महसूस करेगे कि साहित्य केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है जो हमारी कल्पना से जुड़ा है।


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पात्र:


  • जयवीर (Jaiveer): एक युवा पाठक।

  • मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand): महान कथाकार।

  • सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (Suryakant Tripathi 'Nirala'): क्रांतिकारी कवि।

  • रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar'): राष्ट्रकवि।

  • महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma): छायावादी कवयित्री।

  • हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai): व्यंग्यकार।

  • हॉकर (Hawker): एक पुस्तक विक्रेता।


दृश्य 1: पटियाला स्टेशन – हिंदी एक्सप्रेस की प्रतीक्षा


(पटियाला स्टेशन का प्लेटफार्म, हिंदी दिवस की हल्की भीड़। सूरज ढल रहा है और नारंगी रोशनी फैल रही है। एक पुरानी, लेकिन भव्य ट्रेन, "हिंदी एक्सप्रेस" प्लेटफॉर्म पर खड़ी है। इसका रंग स्याही जैसा गहरा है और खिड़कियों से एक नरम, सुनहरी रोशनी छनकर आ रही है। मैं, जयवीर, उत्सुकता से हाथ में एक पुरानी किताबों से भरा बैग लिए खड़ा हूँ। चारों ओर हिंदी गीतों और कविताओं की धीमी गूँज सुनाई दे रही है।)


जयवीर: (स्वगत) हिंदी दिवस का ये दिन... हमेशा मुझे साहित्य के उन दिग्गजों की याद दिलाता है जिन्होंने हिंदी को अपना जीवन दिया। आज जाने क्यों, मन में एक अजीब सी हलचल है। जैसे कोई अनकही कहानी मेरा इंतज़ार कर रही हो। और ये 'हिंदी एक्सप्रेस'... पहली बार देख रहा हूँ इसे।


टिकट चेकर: अगली सवारी! हिंदी एक्सप्रेस, अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करने को तैयार है! साहित्य के इस सफर में आपका स्वागत है!


जयवीर: (टिकट चेकर की ओर देखकर) ये ट्रेन कहाँ तक जाएगी, महोदय?


टिकट चेकर: (मुस्कुराते हुए) जहाँ तक आपकी कल्पना आपको ले जाए, वहीं तक। बस, अपना टिकट संभाल कर रखिएगा।


(मैं मुस्कुराता हूँ और ट्रेन के एक डिब्बे में चढ़ जाता हूँ। डिब्बे के अंदर का माहौल किसी पुराने पुस्तकालय जैसा है। नरम रोशनी और किताबों की खुशबू से भरा। कुछ लोग पहले से बैठे हैं, जिनकी आकृति धुँधली सी है। मैं एक खाली सीट पर बैठ जाता हूँ। जैसे ही मैं बैठता हूँ, रोशनी थोड़ी तेज होती है और मुझे अपने सह-यात्री स्पष्ट दिखने लगते हैं। मेरी आँखें फटी की फटी रह जाती हैं।)


जयवीर: (हैरानी से) ये... ये तो... प्रेमचंद जी, निराला जी, दिनकर जी, महादेवी वर्मा जी और परसाई जी! मैं कोई सपना देख रहा हूँ क्या?


(सभी लेखक शांत बैठे हैं, जैसे किसी गहरी सोच में हो।)


दृश्य 2: सह-यात्री और प्रथम संवाद


(ट्रेन धीरे-धीरे पटरी पर सरकना शुरू करती है। एक हल्की खड़खड़ाहट की आवाज़ आती है। दिनकर जी सबसे पहले अपनी गहरी, प्रभावशाली आवाज़ में बोलते हैं।)


दिनकर: हटो व्योम के मेघ-पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध-दूध! ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं!” युवाओं की आँखों में जब तक आग न जले, क्रांति कैसे आएगी? आज भी वही सवाल है, क्या हम अपने ‘स्वर्ग’ को लूटने से डरेगे? हमें जागना होगा, हमें बदलना होगा।


(उनकी आवाज़ में ऐसा ओज था कि कंपार्टमेंट की दीवारों पर देवनागरी लिपि में उनके छंद उभरने लगे। लैंप कुछ ऐसे टिमटिमाते हैं जैसे किसी युद्ध क्षेत्र के शिविर में हों। मैं अवाक रह जाता हूँ।)


जयवीर: (धीमे से) दिनकर जी, आपकी कविताओं में हमेशा राष्ट्रप्रेम और क्रांति की भावना रही है।


दिनकर: (मुस्कुराते हुए) हाँ वत्स! मेरा स्वर उन सभी के लिए है जो सोए हुए हैं। "अचरज नहीं, खींच ईदें यह सुरपुर को बर्बाद करे, अचरज नहीं, लूट जन्नत वीराँनों को आबाद करे।" हमें अपनी विरासत और अपने देश की शक्ति को पहचानना होगा।


(अब प्रेमचंद जी, अपनी सहज और शांत शैली में, अपनी मूँछों पर ताव देते हुए बोलते हैं।)


प्रेमचंद: क्रांति तो तब आती है, जब आदमी की आत्मा में करुणा जगती है, जब अन्याय के खिलाफ उसका हृदय बोलता है। "दलित जन पर करो करुणा, दीनता पर उत्तर आओ।" सिर्फ बातों से नहीं, बल्कि कर्मों से। मुझे तो कहानियों में जीवन का यथार्थ दिखाना पसंद है। कहानियाँ तो तभी से जन्म लेने लगी जब आदमी ने बोलना सीखा।


जयवीर: प्रेमचंद जी, आपकी कहानियाँ जैसे 'पंच परमेश्वर' और 'मंत्र' हमेशा मानवीय संबंधों और नैतिक मूल्यों की गहराई को दर्शाती हैं।


प्रेमचंद: (गहरी साँस लेते हुए) जीवन का सत्य ही साहित्य का आधार है। "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?" लेखक का काम केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना भी है।


(प्रेमचंद जी के बोलते ही, खिड़की के बाहर के खेत अचानक हरे-भरे पन्नों में बदल जाते हैं, हर धान का पौधा उनके किसी उपन्यास का शब्द लगता है। दूर-दूर तक फैली हुई बस्तियाँ, गाँव की पाठशालाएं, सब जीवंत हो उठते हैं।)


दृश्य 3: खिड़की के जादुई दृश्य और विचारों का आदान-प्रदान


(ट्रेन एक सुरंग से गुजरती है। सुरंग की दीवारों पर 'हिंदी हमारी आत्मा है', 'हिंदी बोलने में गर्व करो', 'हिंदी से जुड़े रहो, संस्कार से जुड़े रहो' जैसे नारे उभरते हैं।)


निराला: (अपनी गंभीर और दार्शनिक आवाज़ में) ये नारे... ये संघर्ष... सब जीवन का हिस्सा है। पर क्या हमने अपनी जड़ों को पहचाना है? "बादल छाये, ये मेरे अपने सपने, आँखों से निकले, मँड़लाये।" प्रकृति में भी वही संघर्ष है, वही सौंदर्य। "सुंदर है, सुंदर! दर्शन से जीवन पर बरसे ज्यो अनिश्वर स्वर।"


जयवीर: निराला जी, आपकी रचनाओं में प्रकृति और मानव जीवन का गहरा संबंध दिखता है, जैसे 'कुकुरमुत्ता' में आपने सामंती व्यवस्था पर प्रहार किया।


निराला: (एक क्षण मौन रहकर) सौंदर्य... वह सिर्फ बाहरी रूप नहीं। वह आत्मा का प्रकाश है। "तुम और मैं, दुनिया में मैं बाँधा खाकर फिरता है, जय मुझे उठा लेते हो तुम तब, ज्यों पानी की किरन, तनाकर।" मैं अकेला नहीं हूँ, ये दुनिया भी मेरे साथ है।


(निराला जी के बोलने पर, खिड़की के बाहर काले-काले बादल छा जाते हैं, फिर उनमें से सुनहरी किरणें फूट पड़ती हैं, जैसे उनकी कविता 'बादल छाये' जीवंत हो उठी हो।)


महादेवी वर्मा: (अपनी कोमल, पर दृढ़ आवाज़ में) जहाँ सौंदर्य है, वहाँ करुणा भी है। "खिली भू पर जब से तुम नारि, कल्पना-सी विधि की श्रम-लान, रहे फिर तब से अनु-अश्रु देवि! लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान!" नारी का जीवन, उसकी पीड़ा, उसका संघर्ष... क्या हम उसे समझ पाए हैं?


(महादेवी जी के बोलते ही, डिब्बे में कमल के फूलों की मंद खुशबू फैल जाती है और एक वीणा की मधुर धुन सुनाई देने लगती है। खिड़की पर हल्की नीली और गुलाबी किरणें नृत्य करने लगती हैं।)


जयवीर: महादेवी जी, आपकी रचनाएँ हमेशा संवेदनशीलता और गहन दार्शनिकता से भरी रही हैं।


महादेवी वर्मा: (एक लंबी साँस लेते हुए) साहित्य का लक्ष्य केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन की गहराई को छूना है। "अश्रु-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे, मेरे इमशान में आ शृंगार जरा बजा दे।" मेरे लिए लेखन सिर्फ लिखना नहीं, स्वयं को अभिव्यक्त करना है।


(अब परसाई जी, अपनी विशिष्ट व्यंग्यात्मक शैली में, थोड़ा ठिठोली करते हुए बोलते हैं।)


परसाई: वाह! सब कितने गंभीर हो गए हैं। लगता है, सबको अपनी-अपनी बीमारी है। मेरी तो यही बीमारी है कि मैं समाज की विद्रूपताओं को न देख सकूँ। "यह है बाज़ार, सौदा करते हैं सब यार।" इस बाज़ार में कौन ईमानदारी बेचता है और कौन खरीदता है, कहना मुश्किल है।


(परसाई जी के बोलते ही, वह अपनी जेब से एक टूटा हुआ दर्पण निकालते हैं और उसे खिड़की की ओर घुमाते हैं। दर्पण में बाहर का दृश्य थोड़ा विकृत होकर दिखता है जैसे समाज की सच्चाई का कड़वा चेहरा हो।)


जयवीर: परसाई जी, आपका व्यंग्य समाज को एक नई दृष्टि देता है।


परसाई: (हँसते हुए) दृष्टि... हाँ! मेरी तो यही कोशिश रहती है कि लोग अपनी आँखों से देखें, सिर्फ़ मेरी बातों से न सुनें। मेरा काम तो बस आईना दिखाना है। जिसे देखकर समाज को समझ आए, "यह है हमारा समाज"।


दृश्य 4: गहन चिंतन और साहित्यिक विरासत


(ट्रेन एक छोटे से गाँव के पास से गुजरती है जहाँ एक हॉकर चाय की बजाय किताबें बेच रहा है। 'गोदान 2 रुपये में', 'मधुशाला एक मुस्कान के बदले'। कुछ स्कूली बच्चे स्टेशन पर चढ़ते हैं, एक साथ हिंदी कविताएँ गाते हुए।)


जयवीर: ये सब कितना अद्भुत है! आप सब की रचनाओं में कितना जीवन है।


(सभी लेखक शांत हो जाते हैं, एक दूसरे को देखते हैं, फिर मुझे। ट्रेन की गति धीमी होने लगती है।)


दिनकर: "उठ जाग, समय अब शेष नहीं, भारत माँ के शार्दूल, बोल!"


निराला: "जग के, जय के, जीवन, दोषा के प्रतनु, प्रमन, करुणायन, कोटि-मय, दोनों के दुरित-शमन।"


प्रेमचंद: "अब हमें समाज के कल्याण के लिए काम करना होगा।"


महादेवी वर्मा: "साहित्य से जीवन का गहरा संबंध है, जीवन की अनुभूतियाँ ही साहित्य को जन्म देती हैं।"


परसाई: "व्यंग्य सिर्फ हँसाना नहीं, सोचने पर मजबूर करना है।"


(ट्रेन अब एक सुनसान से स्टेशन पर रुकती है। बोर्ड पर लिखा है – "भविष्य द्वार"।)


दृश्य 5: भविष्य का द्वार और अवतरण


(ट्रेन पूरी तरह से रुक जाती है। अचानक डिब्बे की रोशनी धीमी हो जाती है। मेरे सह-यात्री धीरे-धीरे धुँधले होने लगते हैं। मैं उन्हें रोकने की कोशिश करता हूँ, पर वे सिर्फ मुस्कुराते हैं और जैसे हवा में घुल जाते हैं। कुछ ही पलों में, मैं डिब्बे में अकेला रह जाता हूँ।)


जयवीर: (हड़बड़ा कर) कहाँ गए सब? ये क्या हुआ?


(मैं अपनी सीट से उठता हूँ। डिब्बे से बाहर आता हूँ। प्लेटफॉर्म पर कोई नहीं है। सिर्फ़ मैं और मेरा कंधों पर टंगा बैग। मैं बैग खोलता हूँ, उसमें वही पाँचों किताबें हैं जो मैं पढ़ रहा था – प्रेमचंद की 'सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ', निराला की 'कुकुरमुत्ता', दिनकर की 'रेणुका', महादेवी वर्मा के 'मेरे प्रिय निबन्ध' और परसाई की 'अपनी-अपनी बीमारी'।)


जयवीर: (आँखों में चमक और गहरी समझ के साथ) तो ये सब... मैंने सिर्फ़ इन किताबों को पढ़ा था। ये मेरी कल्पना थी... ये यात्रा, ये संवाद, ये दृश्य... ये सब उनके शब्दों का जादू था जो मेरे भीतर उतर गया था। उन्होंने मुझे दिखाया कि कैसे साहित्य सिर्फ़ कहानियाँ नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है।


(मैं किताब उठाते हुए, एक-एक करके उनके कवर पर हाथ फेरता हूँ।)


जयवीर: प्रेमचंद जी ने मुझे जीवन की सच्चाई दिखाई, निराला जी ने प्रकृति से जोड़ा और संघर्ष सिखाया, दिनकर जी ने राष्ट्रप्रेम और ओज भरा, महादेवी जी ने संवेदनशीलता और दर्शन दिया और परसाई जी ने हँसते-हँसते समाज की विसंगतियों पर सोचने पर मजबूर किया।


(मैं बैग बंद करता हूँ और प्लेटफॉर्म से बाहर निकल आता हूँ। बाहर की दुनिया अब पहले से कहीं अधिक जीवंत लगती है। मैं हवा में एक गहरी साँस लेता हूँ।)


जयवीर: यह सिर्फ़ एक यात्रा नहीं थी, यह एक विरासत थी। और अब, इस विरासत को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी मेरी है। हिंदी दिवस पर, मैं प्रण लेता हूँ कि इन महान लेखकों की कलम की ताक़त को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाऊँगा। यह सिर्फ़ भाषा नहीं, यह संस्कृति है, हमारा भविष्य है।


समाप्त

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लेखक: जयवीर सिंह

 

1 Comment


khelrajanlackjack
Nov 05

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