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वह जो साधारण को भी जादुई कर गया: विनोद जी को भावभीनी विदाई

  • Digvijay Singh
  • 4 days ago
  • 2 min read

साहित्यिक क्षितिज से एक सूरज के ढलने पर, उनकी यादों की लौ को सहेजने की एक कोशिश। कॉसमॉस के लिए लिखे इस लेख में दिग्विजय सिंह, विनोद कुमार शुक्ल जी की अनूठी सादगी को शब्दों में संजो रहे हैं।


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विनोद कुमार शुक्ल जी के बारे में सोचना दरअसल उस घर के बारे में सोचने जैसा है, जहाँ दीवारों पर पपड़ियाँ भले हो, लेकिन उसकी मुंडेर पर कोई चिड़िया बेखौफ होकर बैठती है। विनोद जी का साहित्य हमें बताता है कि दुनिया को देखने के लिए बड़ी-बड़ी दूरबीनों की जरूरत नहीं होती, बल्कि अपनी आँखों की पुतलियों को थोड़ा सा साफ़ कर लेना ही काफी है। वे उन चंद लेखकों में से हैं, जिन्होंने मामूलीपन को एक उत्सव बना दिया। उनके यहाँ 'आदमी' अपनी तमाम कमजोरियों और सादगी के साथ मौजूद है, वह किसी महानायक की तरह नहीं, बल्कि उस पड़ोसी की तरह दिखता है जो सुबह उठकर चुपचाप अपने पौधों को पानी देता है।


उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' को याद करना एक अलग ही तरह के सम्मोहन में उतरना है। यह किताब पढ़ते हुए अक्सर ऐसा महसूस होता है जैसे हम किसी ठोस दीवार के सामने नहीं, बल्कि एक जादुई पर्दे के सामने खड़े हैं। विनोद जी ने इसमें जिस 'खिड़की' की बात की है, वह ईंट-पत्थर की कोई संरचना मात्र नहीं है, बल्कि वह मनुष्य की असीमित कल्पना और उम्मीद का प्रतीक है। रघुवर प्रसाद का वह छोटा सा संसार, जहाँ अभाव हैं, परेशानियाँ हैं, लेकिन साथ ही एक ऐसी मासूमियत है जो आज के दौर में दुर्लभ हो चली है। वह खिड़की हमें सिखाती है कि बाधाएं कितनी भी बड़ी क्यों न हो, अगर हम अपनी कल्पनाशीलता को जीवित रखें, तो हम बंद कमरों में भी आसमान देख सकते हैं।


विनोद जी की भाषा की सबसे सुंदर बात यह है कि वह कभी शोर नहीं मचाती। वे बड़े-बड़े दर्शन को बहुत ही घरेलू और मटमैले शब्दों में पिरो देते हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई बुजुर्ग हाथ पकड़कर टहलने ले गया हो और बातों-बातों में जीवन का सबसे बड़ा सच कह दिया हो। उनके शब्द 'नहाए हुए' और 'धुले हुए' लगते हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ की धूप और वहाँ की मिट्टी की सादगी रची-बसी है।


आज जब हम तकनीक और शोर-शराबे के बीच अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं, तब विनोद कुमार शुक्ल की स्मृतियाँ और उनकी यह खिड़की हमें वापस अपने घर ले आती हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि खुश रहने के लिए बहुत कुछ होने की जरूरत नहीं है, बस एक खुली खिड़की और उसमें से आती थोड़ी सी धूप ही काफी है।

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लेखक: दिग्विजय सिंह

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